Thursday 14 February 2013

हमारा मिलना


बड़ी दूर थे हम जब पहली बार तुम्हारी आंखों ने मुझे छुआ।
कोई जलजला नहीं आया था।
हमारे बदन के ताप से न ग्लेशियर पिघले, न फूल झूमे,
बस, मेरे भीतर का मोम गलकर कहीं बालों में अटक गया होगा।
मुलाकातियों की नजरें टोहभरी और मुस्कानें गहरा गई थीं।
बार-बार बालों को झटकारती, गालों-होंठों-गरदन पर हाथ फिराती रही मैं,
शायाद कुछ था जो त्वचा के कहीं भीतर उतर गया था,
हिंदुस्तानी, यूनानी नुस्खों की जद से परे।
हम फिर मिले, दोबारा, पहली बार।
जाड़ों का वक्त,
अपने साथ ढेर सी सर्दी लेकर आई मैं
और तुम्हारी ढेर सी गर्मी को अपने भीतर उतार लिया।
पास ही जासूसी करते धूप के एक टुकड़े को धीरे से चूमकर मैंने होंठ तुमपर धर दिए।
बिना चूके तुमने जो एक चुगलखोर तितली बरामद की थी न
मेरे दिल में कैद आज भी वो उस दिन की दुहाई देती है।
सुना है, तुम्हारे भीतर छिपी धूप दुबरा गई है!

1 comment:

  1. वह सिर्फ एहसास ही तो होता है...

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