Saturday 16 February 2013

थोड़े की ज़रूरत है


हर बार पहली दफे होता है जब तुझे सोचती हूं,
अपने अनंत शून्य को भरने का यही तरीका मुफीद पड़ा मुझे।
बेढब सी कल्पना में तुम बराबर साथ उड़ते हो कल्पनाओं के पंख लगाकर
खुरदुरी ज़मीन से शुरु कर लांघ जाते हैं हम सातों समुंदर दूरियों के
छूते हैं चौदहवों आसमान सपनों के।
क्या ही स्वाद है इस ख़याली पुलाव का कि महक मुझे हकीकत में भी तुझसे बांधे रखती है।

Friday 15 February 2013

प्रेम निवेदन ने बनाया शूर्पनखा



ये कहानी है एक राक्षसी के रूपसी और फिर राक्षसी बनने की.
पंचवटी में शूर्पनखा की नाक का किस्सा और उसके बाद की रामायण सबको पता है,
बिरले ही वाकिफ होंगे प्रेम की उसकी तीखी चाहना और रिजेक्शन से उपजी पीड़ा से.
उत्तर-आधुनिक कथाओं में भी इसका कोई ज़िक्र नहीं
न ही तथाकथित स्त्री-विमर्श में उसके साहस और उन्मुक्तता की चर्चा है.
हाइपोथिटिकल थ्योरी को लें तो घटा यूं होगा
पंचवटी में राम के पुष्ट सौंदर्य को देखकर मोहित शूपर्नखा राम से,
-हे देव, आपका सौंदर्य अतुलनीय है. मैं शूर्पनखा आपसे विवाह की इच्छुक हूं.
मुशिकल रहा होगा किसी अनजान पुरुष से प्रणय-निवेदन
जाने कितना साहस चाहिए दानव को मानव से प्रेम के लिए.
उत्तर में राम- हे शूर्पनखे, मैं विवाहित हूं (ध्वनि...अन्यथा सोचता) और अपनी स्त्री के प्रेम में हूं। तुम लक्ष्मण से बात करो (ध्वनि...शायद उसके एकांत का लाभ तुम्हें मिल सके).
बारी-बारी दोनों के पास घूमती शूर्पनखा ने आख़िरकार छद्म भेष हटाया,
प्रेम तो मुझे चाहिए, भले ही चाकू की नोंक पर.
आकर्षण, प्रेम-निवेदन, अस्वीकार और अनौदार्य से उपजा एक नंगा प्रश्न
अस्वीकार्यता, सिर्फ गण के कारण!
मैं प्रेम करती हूं, मुझे प्रेम चाहिए.
खूबसूरत थी ये शूर्पनखा, कितनी बेधक उसकी मांग.
प्रेम ने बाह्य रूप दिया तो रिजेक्शन ने आंतरिक सच्चाई.
सीताहरण से शूर्पनखा के प्रणय-निवेदन का ख़ास तार नहीं वरना सीता की भी नाक पर वार होता.
रामायण तो दो पुरुषों के नाक की दास्तान है,
क्यों कहीं नहीं ज़्रिक प्रेम करने और प्रेम मांगने के अदम्य शूर्पनखीय साहस का.
ये शूर्पनखा से मिला सबक ही तो है जो आज भी स्त्री प्रथम प्रेम-निवेदन नहीं कर पाती.
***किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करना रचना का उद्देश्य नहीं.

Thursday 14 February 2013

हमारा मिलना


बड़ी दूर थे हम जब पहली बार तुम्हारी आंखों ने मुझे छुआ।
कोई जलजला नहीं आया था।
हमारे बदन के ताप से न ग्लेशियर पिघले, न फूल झूमे,
बस, मेरे भीतर का मोम गलकर कहीं बालों में अटक गया होगा।
मुलाकातियों की नजरें टोहभरी और मुस्कानें गहरा गई थीं।
बार-बार बालों को झटकारती, गालों-होंठों-गरदन पर हाथ फिराती रही मैं,
शायाद कुछ था जो त्वचा के कहीं भीतर उतर गया था,
हिंदुस्तानी, यूनानी नुस्खों की जद से परे।
हम फिर मिले, दोबारा, पहली बार।
जाड़ों का वक्त,
अपने साथ ढेर सी सर्दी लेकर आई मैं
और तुम्हारी ढेर सी गर्मी को अपने भीतर उतार लिया।
पास ही जासूसी करते धूप के एक टुकड़े को धीरे से चूमकर मैंने होंठ तुमपर धर दिए।
बिना चूके तुमने जो एक चुगलखोर तितली बरामद की थी न
मेरे दिल में कैद आज भी वो उस दिन की दुहाई देती है।
सुना है, तुम्हारे भीतर छिपी धूप दुबरा गई है!

Friday 1 February 2013

आंसू


आंसू कभी नहीं सूखते.
वो भेदते हैं त्वचा का झीना आवरण और समा जाते हैं शरीर के भीतर,
दौड़ते हैं खून के साथ नसों-औ-शिराओं में.
दिलो-दिमाग से गुज़रकर
जज़्ब हो जाते हैं आत्मा में
शायद इसलिए आत्मा कभी नहीं मरती.