एक नंबर की कबाड़ी है
तुम्हारी बेटी! मां
को पापा का ये ताना गाहे-बगाहे सुनना पड़ जाता, खासकर, जब पापा तय करते कि आज
बच्चों का स्कूल बैग चेक करना है। चूंकि पापा का औचक निरीक्षण यानी सडन इन्सपैक्शन
पर खासा यकीन था इसलिए जब भी उनका मूड खराब होता, मेरे फ्यूचर प्रोफेशन की नींव
रखी जाती।
मुझे आगे चलकर कबाड़ीवाला
बनने में कोई बुराई नजर नहीं आ सकी, इसलिए मेरा संग्रह हर दिन के साथ समृद्ध होता
चला गया। मुझे याद है, तब तोहफे में महंगे गिफ्ट्स नहीं, बल्कि मोरपंख, चुंबक, कोई
सुंदर का डिब्बा, मां का पुराना सिंदूरदान जैसी चीजों का देन-देन होता था। खूब
खेलकूद पसंद, हंसोड़ और थोड़ी-बहुत फ्लर्ट भी होने के कारण मेरे काफी दोस्त भी थे।
लिहाजा, ऐसे तोहफों की मेरे पास भरमार थी। कल्पनाशीलता के चक्कर में ग्राउंड में
पड़े पत्थरों के आंख-कान भी बनाया करती और उन्हें सहेजती। सूखे-रूखे फूल, रंगीन
कागज और क्या नहीं। अपनी कॉपी-किताबों के साथ अपना खजाना भी बैग में ही रखती।
पापा
का गुस्सा लाजिमी था। हर कुछ दिनों में खजाने पर रेड पड़ती और सारा कालाधन नाली के
रास्ते घर से बाहर। पैटर्न बनने पर मैंने होशियारी सीख ली। अपनी चीजें विश्वस्त
सहेलियों के हवाले करने लगी। इससे भी बात नहीं बनी क्योंकि हर दिन मैं उनसे मेरी
प्रॉपर्टी स्कूल लाने की मांग करती ताकि थोड़ा वक्त उनके साथ बिता सकूं। खजाने के
फेर में कई दोस्त भी खोए। पापा की डांट पड़ी, सो अलग। आज सफाई की खब्त लग चुकी है
वरना देश को एक महान संग्रहकर्ता (पापा के शब्दों में कबाड़ीवाला) मिल चुका होता।
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